Special Lecture Series

इतिहास विभाग में प्रोफ़ेसर महेन्द्र कुमार उपाध्याय का व्याख्यान

चित्रकूट न केवल धार्मिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से अपितु ऐतिहासिक-पुरातात्विक दृष्टि से भी अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है. यहाँ से मिले प्रचुर पुरातात्विक साक्ष्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि यह क्षेत्र पुरापाषाणकाल से ही आबाद एवं समृद्ध रहा है. महामति प्राणनाथ महाविद्यालय मऊ चित्रकूट के इतिहास विभाग की तरफ से 30 नवम्वर 2015 को आयोजित व्याख्यान में जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय चित्रकूट से पधारे हुए प्रोफ़ेसर महेन्द्र कुमार उपाध्याय ने अपना व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए ये बातें कहीं. अपने इस व्याख्यान के अंतर्गत प्रोफ़ेसर उपाध्याय ने चित्रकूट के पुरातत्व एवं इतिहास पर विस्तार से प्रकाश डाला.

साहित्यिक स्रोतों में रामायण और महाभारत के अतिरिक्त जैन साहित्य भगवती टीका में भी ‘चित्तकूट’ नाम से इसका उल्लेख मिलता है. साथ ही इसमें गोपालगिरि पहाड़ी का भी उल्लेख किया गया है जिसे आज के कामदगिरि से समीकृत किया जाता है. लौकिक साहित्य में कालिदास के मेघदूत, भवभूति के उत्तररामचरितम, तुलसीदास के रामचरितमानस, रहीम की दोहावली और केशवदास की रामचंद्रिका में भी चित्रकूट का उल्लेख किया गया है. विदेशी यात्रियों में व्हेनसांग ‘चिचिटो’ नामक स्थल की चर्चा करता है जिसे इतिहासविद डी. सी. गांगुली चित्रकूट से समीकृत करते हैं.
पुरातात्विक की बात की जाए तो इलाहाबाद के गढ़वा अभिलेख में चित्रकूट के स्पष्ट प्रमाण प्राप्त होते हैं. कलचुरी शासक कर्णदेव के बनारस ताम्रलेख और राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय के करहद ताम्रलेख में भी चित्रकूट का नामोल्लेख किया गया है.
पाषाण काल के तीनों समयावधियों से जुड़े पुरास्थल चित्रकूट जिले में मिलते हैं. लालापुर, दशरथ घाट, परानू बाबा, बरियारी नाला से निम्नपुरापाषाण काल, सिद्धपुर, लोखरी, ऐचवारा, बनाडी से मध्य पुरापाषाण काल और लोढवारा, बरकोट से उच्च पुरापाषाण काल के अनेकानेक उपकरण प्राप्त होते हैं. मारकुंडी, भरथौल तथा चकौंध से बड़ी मात्रा में लघुपाषाणोंपकरण तथा खोह, बरगढ़, चकौंध से नव पाषाण काल के पर्याप्त साक्ष्य मिलते हैं. परदंवा, राजापुर तथा नयागाँव जैसी जगहों से उत्तर काली मृदभाण्ड परम्परा के पात्र मिले हैं. वृहद् पाषाण कालीन संस्कृतियों के कुछ स्थलों की पहचान भी यहाँ पर की गयी है.
इन पुरातात्विक साक्ष्यों के अतिरिक्त ऐतिहासिक काल के अनेक साक्ष्य प्राप्त हुए हैं जिससे चित्रकूट की ऐतिहासिकता की पुष्टि होती है. महाजनपद काल से ले कर आधुनिक काल तक चित्रकूट का इतिहास अत्यंत समृद्ध रहा है. इसमें चंदेलों का समय अत्यंत महत्वपूर्ण है जिसके अंतर्गत यह क्षेत्र मूर्ति कला, मन्दिर निर्माण कला आदि में शीर्षस्थ रहा है.

महाविद्यालय में इतिहास विभाग के डॉ सन्तोष चतुर्वेदी ने आए हुए अतिथि का स्वागत किया.तथा डॉ. गांगेय मुखर्जी ने कार्यक्रम के अन्त में धन्यवाद ज्ञापन किया. इस अवसर पर डॉ. मुरली मनोहर द्विवेदी, हिमांगी त्रिपाठी बालकृष्ण एवं हिमांशु कुमार आदि प्राध्यापक भी उपस्थित रहे. कार्यक्रम में बड़ी संख्या में छात्र-छात्रों ने भाग लिया.

संस्कृत विभाग में प्रोफेसर शंकर दयाल द्विवेदी का व्याख्यान

प्रकृति के साथ आत्मीयता का सन्देश देना ही कवि का प्रयोजन

मऊ, चित्रकूट, 09 दिसम्बर, 2010; प्रकृति के साथ सहानुभूति रखने पर प्रकृति भी मनुष्य के साथ सहानुभूति रखती है. यह बात स्थानीय महामति प्राणनाथ महाविद्यालय में आयोजित व्याख्यानमाला के क्रम में संस्कृत विभाग द्वारा आयोजित विशेष व्याख्यान ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम में कालिदास की व्यंजना’ शीर्षक पर बोलते हुए इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर शंकर दयाल द्विवेदी ने कहीं. उक्त व्याख्यान में बोलते हुए उन्होंने प्रारम्भ में स्पष्ट किया कि व्यंजना से प्राप्त अर्थ या ध्वन्यर्थ ही काव्य का प्राण तत्व होता है. ध्वन्यर्थ के द्वारा प्रकृति के साथ आत्मीयता और सहानुभूति का सन्देश देना ही कवि का प्रयोजन है. केवल किसी कथा या इतिहास मात्र को प्रस्तुत करना ही कवि का प्रयोजन नहीं होता. यह कार्य तो इतिहास आदि ग्रन्थों से सिद्ध होता ही है. ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम’ से अनेक उद्धरण प्रस्तुत करते हुए प्रोफ़ेसर द्विवेदी ने उक्त प्रयोजन को स्वाभाविक रूप से स्पष्ट किया. छोटे-छोटे वृक्षों को जल से सींचती हुई आश्रम की बालिकाएँ पौधों के पल्लवों को हिलते हुए देख कर यह महसूस करती हैं कि वह पौधा अपनी पल्लव रूपी अँगुलियों के इशारे से सींचने के लिए उन्हें अपनी तरफ बुला रहा है. मानव शिशुओं के समान ही वे लताओं और पौधों का नामकरण भी करतीं हैं. कालिदास की शकुन्तला पौधों को सींचे बिना स्वयं जल नहीं पीती. क्योंकि अपनी प्यास की ही तरह वृक्षों की प्यास की अनुभूति भी वह करती है. मृग शावकों से वह पुत्रवत स्नेह करती है. सदैव अपने कर्तव्य को ही प्राथमिकता देना भारतीय संस्कृति का परम सन्देश है. समिधा लेने जाते हुए छोटे-छोटे बालक भी मार्ग में चक्रवर्ती सम्राट दुष्यन्त के मिलने पर उनसे आश्रम में आतिथ्य ग्रहण करने के लिए तो शालीनतापूर्वक निवेदन करते हैं किन्तु स्वयं समिधा लाने को अपना कर्तव्य बताते हुए अपने मार्ग पर चले जाते हैं. साथ ही वे राजा को याद दिलाते हैं यदि आपके किसी कर्तव्य में व्यवधान न पड़े तभी आश्रम का आतिथ्य ग्रहण करें. मनुष्य कितना ही तेजस्वी या बलवान हो नियति से वह सदैव नियन्त्रित होता है. यह बात एक काल में ही सूर्य के उदय तथा ओषधीश चन्द्रमा के अस्त द्वारा कालिदास ने समझाया है. साथ ही कवि ने यह भी ध्वनित किया है कि कभी भी किसी की भी दशा सदैव एक समान नहीं रहती अपितु रथ के पहिए के नेमि के समान ऊपर नीचे परिवर्तित होती रहती है. भारतीय संस्कृति में सर्वत्र यही सन्देश दिया गया है. व्याख्यान के क्रम में आगे उन्होंने यह भी कहा कि सच्चे विश्वास को ही भारतीय संस्कृति में प्रेम कहा गया है. विश्वास से रहित प्रेम वस्तुतः वासना है. कार्यक्रम की अध्यक्षता महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. रोहिताश्व कुमार शर्मा ने किया जबकि संचालन संस्कृत विभाग के डॉ. मुरली मनोहर द्विवेदी ने किया. व्याख्यान के अन्त में डॉ. गांगेय मुखर्जी ने धन्यवाद ज्ञापन किया. इस अवसर पर इंटर कालेज के पूर्व संस्कृत प्रवक्ता आचार्य शिवप्रताप मिश्र के अतिरिक्त महाविद्यालय के शिक्षक डॉ सन्तोष कुमार चतुर्वेदी, डॉ. एस. कुरील, हिमांगी त्रिपाठी, हिमांशु कुमार आदि उपस्थित रहे. व्याख्यान को सुनने के लिए महाविद्यालय के पूर्व छात्र वाचस्पति मिश्र के साथ-साथ बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएँ उपस्थित थे.
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हिन्दी विभाग में डॉ. कुसुम सिंह का व्याख्यान

समन्वय सामाजिक जीवन और लोक-कल्याण का मूल-मन्त्र है। प्राचीन परम्पराओं का अविचारित त्याग उचित नहीं। महामति प्राणनाथ महाविद्यालय मऊ, चित्रकूट के हिन्दी विभाग द्वारा 18 दिसम्बर 2015 को आयोजित एकल व्याख्यान में महात्मा गाँधी ग्रामोदय विश्वविद्यालय सतना, मध्य प्रदेश से आयी हुईं डॉ. कुसुम सिंह ने ‘गोस्वामी तुलसीदास के समन्वयवाद की प्रासंगिकता’ विषय पर व्याख्यान देते हुए अपने ये विचार व्यक्त किए। व्याख्यान का आरम्भ उन्होंने गोस्वामी तुलसीदास के समय की राजनीतिक, सामाजिक परिस्थितियों की चर्चा करते हुए किया। उनके अनुसार गोस्वामी तुलसीदास या अन्य कवि को समझने के लिए उसके समय की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों का सम्यक ज्ञान आवश्यक है। आधुनिकता के साथ-साथ प्राचीनता का समन्वय प्रस्तुत करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि प्राचीन परम्पराओं और मान्यताओं में उन्हीं परम्पराओं का त्याग करना चाहिए जो लोक-कल्याण के प्रतिकूल हो। व्यापक एवं जीवंत सरोकारों वाली परम्पराएँ समाज और व्यक्ति दोनों के लिए कल्याणकारी होती हैं। डॉ. कुसुम सिंह ने बताया कि तुलसीदास के समय विदेशी आक्रान्ताओं का शासन था। इस समय राज्य की हिन्दू जनता के भौतिक हितों और धार्मिक आस्थाओं पर कुठाराघात हो रहा था। हिन्दू जनता घोर निराशा के अन्धकार में डूबी हुई स्वयं को कुछ भी कर पाने में असमर्थ पा रही थी। ऐसे में तुलसीदास ने रामचरितमानस का प्रणयन कर एक उम्मीद की राह दिखायी। वर्तमान समाज की वर्ग-संघर्ष, जाति-संघर्ष, पारिवारिक संघर्ष जैसी विकत समस्याओं के समाधान के लिए तुलसी के समन्वयवादी विचार ही अवलम्ब हो सकते हैं। व्याख्यान के पश्चात महाविद्यालय के छात्र-छात्राओं ने डॉ. कुसुम सिंह के सामने कुछ प्रश्न भी रखे जिसका जवाब कुसुम जी ने अपनी तरफ से दिया। कार्यक्रम का संचालन डॉ. संतोष कुमार चतुर्वेदी ने किया। महाविद्यालय परिवार की तरफ से संस्कृत विभाग के डॉ. एम. एम. द्विवेदी ने डॉ. कुसुम सिंह का धन्यवाद ज्ञापन किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. आर. के शर्मा ने किया। इस अवसर पर हिमांगी त्रिपाठी, हिमांशु कुमार जैसे शिक्षकों सहित महाविद्यालय के अधिकाँश छात्र-छात्राएं भी उपस्थित थीं।

संस्कृत विभाग में प्रोफेसर राजलक्ष्मी वर्मा का व्याख्यान

धर्म जीवन के शाश्वत मूल्यों का संग्रह है

मऊ, 28 दिसम्बर 2015, भारत में धर्म संस्कृति का अंग नहीं है बल्कि यहाँ पर संस्कृति ही धर्म का एक अंग है. धर्म जीवन के शाश्वत मूल्यों का संग्रह है. इसमें सभी सुन्दर संभावनाएं सन्निहित हैं. स्थानीय महामति प्राणनाथ महाविद्यालय के संस्कृत विभाग के अंतर्गत आयोजित एकल व्याख्यानमाला में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग की पूर्व विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर राजलक्ष्मी वर्मा ने अपने विचार व्यक्त करते हुए ये बातें कहीं. इसी क्रम में प्रोफ़ेसर वर्मा ने कहा कि दुनिया की और सभ्यतायों का निर्माण कहीं किसी शासक के द्वारा किया गया तो कहीं पर आक्रान्ताओं के द्वारा लेकिन भारतीय संस्कृति का निर्माण यहाँ के चिन्तकों के द्वारा किया गया. इसीलिए भारतीय संस्कृति अपने आप में अलग और विशिष्ट दिखायी पड़ती है. संस्कृत वांग्मय की विशिष्टताएँ समूचे भारतीय वांगमय की विशिष्टताएँ हैं. कमोबेस साहित्य और संस्कृति में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है.
अपनी बात को आगे बढाते हुए प्रोफेसर वर्मा ने कहा साहित्यकार समाज का रिपोर्टर नहीं होता बल्कि बेहतर समाज के निर्माण में उसकी भूमिका महत्वपूर्ण होती है. संस्कृत साहित्य अधिकांशतः सुखात्मक है. इस तरह इस साहित्य की अपने आप में एक सकारात्मक भूमिका है. कवि भले ही अपनी रचना में ‘स्व’ की बात करता है लेकिन उसके इस स्व में समूह की बातें होती हैं. इसीलिए उसका वितान काफी बड़ा होता है. साहित्यकार अपने मन के कलुष की शांति के लिए रचना की तरफ उन्मुख होता है. तभी ह्रदय में आनंद की अनुभूति भी होती है. यही श्रेष्ठ साहित्य का प्रयोजन होता है. मानव समाज के लिए हितकारी जो भी होगा अंततः वही साहित्य बचेगा और रहेगा. कार्यक्रम का संचालन डॉ. सन्तोष चतुर्वेदी ने किया जबकि आभार ज्ञापन डॉ. मुरली मनोहर द्विवेदी ने किया. इस अवसर पर प्राचार्य डॉ. आर. के. शर्मा, डॉ. गांगेय मुखर्जी, डॉ. एस. कुरील और हिमांगी त्रिपाठी आदि प्राध्यापक उपस्थित थे. बड़ी संख्या में छात्र- छात्राओं ने प्रोफ़ेसर वर्मा के व्याख्यान को तन्मयता से सुना. कार्यक्रम के अंत में मऊ के सम्भ्रान्त नागरिक एवं पूर्व जिला पंचायत सदस्य श्री कामता जाटव के असामयिक निधन पर एक शोक प्रस्ताव लाया गया और दो मिनट का मौन भी रखा गया.

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राजनीति विज्ञान विभाग में डा0 नीलम चौरे का व्याख्यान

दिनांक 12-01-2016 को महाविद्यहालय में राजनीति विज्ञान विभाग द्वारा आयोजित व्याख्यान माला में महात्मा गाँधी ग्रामोदय विश्वविद्यालय चित्रकूट] सतना की राजनीति विज्ञान की विभागाध्यक्ष प्रो0 नीलम चौरे ने भारतीय विदेश नीति के परिप्रेक्ष्य विषय पर प्रकाश डाला। डा0 नीलम चौरे ने अपने व्याख्यान के अंतर्गत भारत की विेदेश नीति के विभिन्न पहलुओं के सम्बन्ध में स्वतन्त्रता के बाद से वर्तमान की घटनाओं का एक समग्र विचार प्रस्तुत किया। इस दौरान महाविद्यालय के प्राचार्य डा0 आर0 के0 शर्मा, डा0 गांगेय मुखर्जी एवं डा0 एस0 कुरील ने अपने विचार व्यक्त किए। इस व्याख्यान माला में बी0 ए0 प्रथम] द्वितीय एवं तृतीय वर्ष के राजनीति विज्ञान के छात्र छात्राएं उपस्थित थे।
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अंग्रेजी विभाग में प्रोफ़ेसर आर. सी. त्रिपाठी का व्याख्यान

‘सहित’ के बिना नहीं होता साहित्य

मऊ, चित्रकूट, 21 जनवरी 2016, कबीर ने अल्लाह से ले कर अपनी सत्ता तक को मानने से इनकार किया लेकिन जिस एक सत्ता को उन्होंने स्वीकार किया, वह दुर्बल वर्ग की सत्ता थी. अपने एक दोहे में उन्होंने कहा भी ‘दुर्बल को न सताईए, जाकी मोटी हाय. मुए खाल की स्वांस सो, सार भसम होई जाय.’ इसलिए कबीर आज भी जनमानस में जिन्दा हैं क्योंकि उन्होंने साहित्य की ‘सहित भावना’ को अपनी बानियों में जगह प्रदान किया. स्थानीय महामति प्राणनाथ महाविद्यालय के प्राणनाथ सभागार में अंग्रेजी विभाग की तरफ से आयोजित एकल व्याख्यान में बोलते हुए इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व प्रो-वाईस चांसलर और मनोविज्ञान विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफ़ेसर आर. सी. त्रिपाठी ने उक्त बातें कहीं. प्रोफ़ेसर त्रिपाठी ने ‘साहित्य और मनोविज्ञान के आपसी सम्बन्धों’ पर बातचीत के क्रम में आगे कहा कि साहित्य इसीलिए प्रभावी होता है क्यों कि यह ‘सहित’ की भावना लिए होता है. ‘सहित’ के बिना साहित्य नहीं होता. इसका परिप्रेक्ष्य संकीर्ण न हो कर अत्यन्त व्यापक होता है. अंग्रेजी में इस साहित्य के लिए ‘लिट्रेचर’ शब्द का उपयोग किया जाता है जो मूलतः लैटिन के शब्द ‘लिटेरा’ से उद्भूत हुआ है. इस ‘लिटेरा’ का साम्य उन्होंने ‘लेटर’ यानी शब्द से जोड़ते हुए कहा कि साहित्य में शब्द की महत्ता पर विशेष जोर दिया जाता है जिससे वस्तुतः अनुभूतियों की भावाभिव्यक्ति होती है. इसीलिए साहित्य में शब्दों के उपयोग पर विशेष ध्यान दिया जाता है. इन शब्दों का अपना विशेष अर्थ होता है. साहित्य के लेखन का सम्बन्ध मूलतः पीड़ा या विरह से है. इस क्रम में प्रोफ़ेसर त्रिपाठी ने रामायण के कृतिकार वाल्मीकि, रामचरितमानस के कवि गोस्वामी तुलसीदास और आधुनिक काल के छायावादी कवियों सुमित्रानन्दन पन्त और महादेवी वर्मा की पंक्तियों को भी उद्धृत किया. उन्होंने महादेवी वर्मा ने अपनी कविताओं में स्त्रियों की विडम्बनाओं को करीने से व्यक्त किया है. इस व्याख्यान का सञ्चालन और धन्यवाद ज्ञापन अंग्रेजी विभाग के डॉ. गांगेय मुखर्जी ने किया. कार्यक्रम की अध्यक्षता महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. रोहिताश्व कुमार शर्मा ने किया. कार्यक्रम के दौरान महाविद्यालय के प्राध्यापक गण डॉ. मुरली मनोहर द्विवेदी, डॉ. सन्तोष कुमार चतुर्वेदी, डॉ. सकठू कुरील, हिमांगी त्रिपाठी, हिमांशु जाटव आदि उपस्थित रहे. व्याख्यान के पश्चात् महाविद्यालय के छात्र-छात्राओं ने प्रोफ़ेसर त्रिपाठी से कुछ सवाल भी पूछे जिसका उन्होंने समुचित जवाब भी दिया.